वैदिक साहित्य में उपासना का महत्वपूर्ण स्थान है। हिन्दू धर्म के सभी मतावलम्बी-वैष्णव, शैव, शाक्त तथा सनातन धर्मावलम्बी-उपासना का ही आश्रय ग्रहण करते हैं। यह अनुभूत सत्य है कि मन्त्रों में शक्ति होती है। परन्तु मन्त्रों की क्रमबद्धता, शुद्ध उच्चारण और प्रयोग का ज्ञान भी परम आवश्यक है। जिस प्रकार कई सुप्त व्यक्तियों में से जिस व्यक्ति के नाम का उच्चारण होता है, उसकी निद्रा भंग हो जाती है, अन्य सोते रहते हैं उसी प्रकार शुद्ध उच्चारण से ही मन्त्र प्रभावशाली होते हैं और देवों को जाग्रत करते हैं। क्रमबद्धता भी उपासना का महत्वपूर्ण भाग है। दैनिक जीवन में हमारी दिनचर्या में यदि कहीं व्यतिक्रम हो जाता है तो कितनी कठिनाई होती है, उसी प्रकार उपासना में भी व्यतिक्रम कठिनाई उत्पन्न कर सकता है। अतः उपासना-पद्धति में मंत्रों का शुद्ध उच्चारण तथा क्रमबद्ध प्रयोग करने से ही अर्थ चतुष्टय की प्राप्ति कर परम लक्ष्य-मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है। इसी श्रृंखला में प्रस्तुत है भैरव उपासना। भारतीय वाङ्मय में, भारतीय दर्शन एवं देवोपासना में हर एक उपासनाएं अपनी-अपनी विशेषताएं लिये हुए हैं, भिन्नता लिये हुए हैं तथापि उन सब का लक्ष्य दिशा एक ही है। हां, साधक की भावना विशेष से ही देवोपासना में भेद हो गया है। इसके अलावा कामना भेद, विचार भेद, देवभेद आदि भी हेतु होते रहे हैं। अनेक रूप-रुपाय का मूलभूत सिद्धांत उपासना भेद को अपने में निहित रखता चला आ रहा है। इतने पर भी, तथापि भगवान भैरव की उपासना साधक वास्ते कल्प वृक्ष है-
‘बटुकाख्यस्य देवस्य भैरवस्य महात्मन:।
ब्रह्मा विष्णु, महेशाधैर्वन्दित दयानिधे।।’
अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेशादि देवों द्वारा वदन्ति बटुक नाम के प्रसिद्ध यह भैरव देव की उपासना कल्पवृक्ष के सामन फलदाता है।
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