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Wednesday, August 24, 2011

भागो मत, सामना करने से दूर होगा भय

भैरव तंत्र के अनुसार किसी चीज का अतिक्रमण उसी चीज के माध्यम से संभव है। उदाहरण के लिए, भय है तो भय से भागकर या बचकर नहीं भय का सामना करने से ही भय का निवारण हो पाएगा। माँस, मदिरा, मत्स्य, काम की चाह जल्दी भरमाते हैं। इनसे से बचना है तो इनका अतिक्रमण करना होगा। बीच से गुजर कर जाना होगा। जब आप इन्हें देख लेंगे, इन्हें जान लेंगे तो फिर ये आपको भरमा नहीं पायेंगे। ये आकर्षण इसीलिये भरम पैदा करते हैं कि लोग सोये सोये ही इनमें उलझे रहते हैं। जिस दिन जागकर इन्हें जान लिया उसी दिन से इन आकर्षणों का अर्थ समाप्त हो जाता है। ये आकर्षण अर्थहीन हो जाते हैं। ये आकर्षित करना छोड़ देते हैं। भैरव तंत्र ने अनेक उपाय सुझाये हैं। ये सारे उपाय बाजार की उन्हीं गलियों से गुजरते हैं जहाँ आपका आपा खो गया था। उदाहरण के लिए कुछ रास्तों के नाम हैं – मायीव प्रयोग (फ़िल्म, जादू के करतब, तमाशा आदि), भोजन, पान, मित्र – मिलाप, प्रेम – प्रसंग, गाड़ी की सवारी, संगीत सुनते समय आदि। भैरव तंत्र कहता है कि ये ही रास्ते आपको भैरवी अवस्था तक पहुँचा सकते हैं जहाँ पातँजलि आपको अष्टाँग योग से ले जाना चाहते हैं। भैरव तंत्र के रास्ते से लाभ यह होगा कि आपको बाजार भी नहीं त्यागना पड़ेगा और आप बाजार में योग की दुकान सजाये बैठे आढ़तियों से भी बच जाएँगे।
भैरव तंत्र के प्रारम्भ में ही देवी शिव से पूछती हैं- हे शिव, आपका सत्य क्या है? यह विस्मय भरा विश्व क्या है? इसका बीज क्या है? विश्व चक्र की धुरी क्या है? रूपों पर छाए लेकिन रूप के परे जाकर हम इसमें कैसे पूर्णतः प्रवेश करें? मेरे संशय निर्मूल करें। इसके उत्तर में शिव ने देवी के समक्ष 112 विधियों का उल्लेख किया है जिनके माध्यम से भैरवी अवस्था को प्राप्त हुआ जा सकता है। इन 112 विधियों की चर्चा से पूर्व भैरवी अवस्था को समझना श्रेयस्कर होगा। विज्ञान भैरव की14 वीं,15 और 19 वीं कारिकाओं में शिव कहते हैं –
दिक्कालकलनोन्मुक्ता देशोद्देशाविशेषिणी।
व्युपदेष्टुमशक्यासावकथ्या परमार्थतः।।14।।
अन्तः स्वानुभवानन्दा विकल्पोन्मुक्त गोचरा।
यावस्था भरिताकारा भैरवी भैरवात्मनः।।15।।
न वह्नेर्दाहिका शक्तिव् र्यतिरिक्ता विभाव्यते।
केवलं ज्ञानसत्तायां प्रारम्भोदयं प्रवेशने।।19।।

अर्थात दिशा और काल के व्यापार से मुक्त, दूर या समीप के भेद से रहित, प्रतिपादन के अयोग्य यह तत्त्वतः अनिर्वचनीय है। वास्तव में भीतर ही भीतर अपने अनुभव मात्र से आनन्द देने वाली और संकल्प विकल्प से मुक्त होकर अनुभूत होने वाली जो परिपूर्ण आकार वाली अवस्था है वही भैरवी शक्ति है। अग्नि की दाह्य शक्ति अग्नि से अलग कुछ नहीं है। ज्ञान प्रारम्भ करने के लिए प्रवेश द्वार के रूप तक तो ठीक है। शिव यहाँ अस्तित्त्व और ज्ञान के द्वैत को समझा रहे हैं। उनके अनुसार ज्ञान और अस्तित्त्व अनिवार्यतः एक ही नहीं हैं। ज्ञान एक कामचलाऊ अवधारणा भर है। ज्ञान मात्र से अस्तित्त्व के बारे में दिया गया वक्तव्य बहुत प्रमाणिक नहीं हो सकता है। विषय में प्रवेश करवा देने के बाद ज्ञान का मूल्य रद्दी के गट्ठर से अधिक शायद ही रह पाता हो। 32 वीं कारिका कहती हैः
शिखिपक्षैश्चित्ररूपैर्मण्डलैः शून्यपंचकम्।
ध्यायतोनुत्तरे शून्ये प्रवेशो हृदये भवेत्।।32।।

रंगीन मोरपंखों की तरह मण्डलों (इन्द्रियों या तन्मात्राओं) को पंचक शून्य मानकर हृदय में ध्यान करते हुए (योगी) का प्रवेश अनुत्तर शून्य में होता है। मोर पंखों में रंगीन वर्तुल होते हैं। मोहक होते हैं। मनभावन होते हैं। आपकी पाँच इन्द्रियाँ ( आँख, नाक, कान, रसना और त्वचा) हैं और इन पाँच इन्द्रियों से सम्बन्धित पाँच तन्मात्राएँ ( रूप, गंध, शब्द, रस और स्पर्श ) हैं। इनमें ही स्थित हो जाओ। इनसे भागो मत। इनमें स्थित हो जाओ। इन से भाग कर आप जा नहीं पाएँगे। इनसे भागने का कोई उपाय नहीं है। जहाँ भी भाग कर जाओगे आपके आँख, नाक, कान, जीभ और खाल वहीं वहीं चली जाएगी। आप इन इन्द्रियों के बिना भाग ना पाओगे। ये आपके अटूट हिस्से हैं। इनमें स्थित हो जाओ। इन्हीं में विसर्जित हो जाओ। शिव कहते हैं – ऐसे नहीं। आप खा रहे हैं। हाथ, जबड़ा, जीभ, कान, मस्तिष्क सब चल रहे हैं। भोजन किया जा रहा है। आपकी इन्द्रियाँ गतिशील हैं परन्तु आप किसी भी इन्द्रिय की गति में उपस्थित नहीं हैं। मुँह, आँख, कान, मस्तिष्क चलाने वाला सोया हुआ है। इन्द्रियाँ आपके अस्तित्त्व का हिस्सा हैं। जब देखो तो देखना बन जाओ। सुनो तो सुनना बन जाओ। जागकर देखो कि देखा जा रहा है। जागकर सुनो कि सुना जा रहा है। जाग कर सूँघो कि सूँघा जा रहा है। शिव जागरण का आह्वान कर रहे हैं। शिव कहते हैं- जागकर अपनी इन्द्रियों के मण्डल में खो जाओ। सोते हुए मत देखो। सोते हुए मत सुनो। सोते हुए देखोगे तो दृश्य तो रहेगा पर दर्शक का स्थान खो जाएगा। दर्शक के होने का कोई उपाय न बचेगा। शिव कहते दृश्य यन्त्रवत् है, दर्शक नहीं। दर्शक चेतन हैं। शिव दर्शक को जगाते हैं। शिव चैतन्य की बात करते हैं। रंगीन मोरपंखों की तरह मण्डलों (इन्द्रियों या तन्मात्राओं) को पंचक शून्य मानो। मोर पंखों की तरह इन पंचेन्द्रियों या पंच तन्मात्राओं को शून्य मानो। आरोपण मत करो। आरोपण से दृश्य शुद्ध नहीं रह पाएगा। आरोपण एक बाधा है। यह कृत्रिम है। यह दृश्य की सही संवेदना को दर्शक तक पहुँचने से रोकती है। जो संवेदना विषय से चलनी शुरु हुई थी वह जस की तस चित्त तक नहीं पहुँची। पुराने अनुभवों के आरोप ने उसे मैला कर दिया। दर्शक को जो दृश्य उपस्थित हो सकता था पिछले अनुभवों के आरोप ने उसे उस दृश्य से वंचित कर दिया। अब इसके बाद हृदय में ध्यान करने से योगी शून्य में प्रवेश करता है। हृदय में ध्यान की विशिष्टता है। भ्रूमध्य में नहीं, मूलाधार में नहीं, मध्यनाड़ी में नहीं, शिव कहते हैं – हृदय में ध्यान करने से योगी शून्य में प्रवेश करता है। इससे पूर्व में 24 वीं कारिका में शिव कहते हैं कि हृदय से द्वादशांत तक चलने वाली ऊर्ध्व वायु प्राण है और द्वादशाँत से हृदय तक चलने वाली अधो वायु अपान है। शिव कहते हैं कि हृदय प्राण की उत्पत्ति का स्थान है। यहाँ प्राण और अपान का मिलन होता है। हृदय अस्तित्त्व का आधार स्थान है। हृदय में ध्यान करने से योगी शून्य में प्रवेश करता है। मस्तिष्क बुद्धि का उपकरण है। मस्तिष्क सोचने विचारने की टूल किट है। बुद्धि सोचने और विचारने के बाद संकल्प और विकल्प सुझा देती है। बुद्धि विकल्पात्मिका है। योगी शून्य में प्रवेश करता है। नागसेन बहुत बड़े बौद्ध आचार्य हुए हैं। एक बार राजा मिलिन्द ने उनसे पूछा था – भन्ते कुछ लोग कहते हैं कि संसार है, कुछ अन्य लोग कहते हैं कि संसार नहीं है बस प्रतीति है। कुछ लोग कहते हैं कि संसार ऐसा है तो अन्य लोग संसार को कुछ अन्य तरह का बताते हैं। ऐसी ही बातें आत्मा, ईश्वर आदि के बारे में भी कही जाती हैं। भगवन कृपया मेरी शंका का निवारण करें। मुझे इनका स्वरूप बतायें । नागसेन ने कहा – राजन् , संसार का अस्तित्त्व है – ऐसा कहना नितांत सही नहीं होगा। क्योंकि अगर संसार का अस्तित्त्व है तो मृत्यु जैसी अनस्तित्त्वमूलक घटनाओं का कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया जा सकता है। जिसका अस्तित्त्व है उसका अनस्तित्त्व नहीं हो सकता। राजन ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि संसार का कोई अस्तित्त्व नहीं है। नियमित रूप से जन्म आदि घटनाएँ देखने में आती हैं। अनस्तित्त्वमान संसार का नियमित रूप से अस्तित्त्व में आते रहने को समझाया नहीं जा सकता है। साथ ही ऐसा भी कहना युक्तिसंगत नहीं है कि यह अनस्तित्त्वमान सत्ताओं का अस्तित्त्व है या अस्तित्त्वमान सत्ताओं का अनस्तित्त्व है। अन्तिम दोनों स्थितियाँ स्वतः व्याघाती (self contradictory) हैं। तब राजा मिलिन्द ने फिर पूछा कि प्रभु तब यह सब क्या है. नागसेन ने कहा- राजन यह अनिर्वचनीय है। इसे बोलकर नहीं बताया जा सकता है। आप संसार से कट कर कहीं नहीं जा सकते। संसार से कटना कोई मार्ग है भी नहीं। यहीं मुक्त हो जाओ। मोक्ष पा जाओ। कन्दराओं में मोक्ष होता तो वहाँ की शिलाँए पहले ही मोक्ष पा चुकी होतीं। आपके जाने के लिए स्थान न बचता। मोक्ष कन्दराओं में नहीं छिपा है। मोक्ष आपमें ही छिपा है। अपितु आप ही मोक्ष हैं। बिलकुल वैसे ही जैसे की आप ही बन्धन भी हैं। मोक्ष बाहर से आयातित कोई वस्तु नहीं है। आपकी जागृति ही है। जाग जाओ, यह जरूरी है।