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Tuesday, November 30, 2010

भैरव नाम जाप से कई रोगों से मुक्ति

भगवान भैरव की महिमा अनेक शास्त्रों में मिलती है। भैरव जहाँ शिव के गण के रूप में जाने जाते हैं, वहीं वे दुर्गा के अनुचारी माने गए हैं। भैरव की सवारी कुत्ता है। चमेली फूल प्रिय होने के कारण उपासना में इसका विशेष महत्व है। साथ ही भैरव रात्रि के देवता माने जाते हैं। भैरव के नाम जप मात्र से मनुष्य को कई रोगों से मुक्ति मिलती है। वे संतान को लंबी उम्र प्रदान करते है। अगर आप भूत-प्रेत बाधा, तांत्रिक क्रियाओं से परेशान है, तो आप शनिवार या मंगलवार कभी भी अपने घर में भैरव पाठ का वाचन कराने से समस्त कष्टों और परेशानियों से मुक्त हो सकते हैं। जन्मकुंडली में अगर आप मंगल ग्रह के दोषों से परेशान हैं तो भैरव की पूजा करके पत्रिका के दोषों का निवारण आसानी से कर सकते है। राहु केतु के उपायों के लिए भी इनका पूजन करना अच्छा माना जाता है। भैरव की पूजा में काली उड़द और उड़द से बने मिष्‍ठान्न इमरती, दही बड़े, दूध और मेवा का भोग लगाना लाभकारी है इससे भैरव प्रसन्न होते है।
भैरव की पूजा-अर्चना करने से परिवार में सुख-शांति, समृद्धि के साथ-साथ स्वास्थ्य की रक्षा भी होती है। तंत्र के ये जाने-माने महान देवता काशी के कोतवाल माने जाते हैं। भैरव तंत्रोक्त, बटुक भैरव कवच, काल भैरव स्तोत्र, बटुक भैरव ब्रह्म कवच आदि का नियमित पाठ करने से अपनी अनेक समस्याओं का निदान कर सकते हैं। भैरव कवच से असामायिक मृत्यु से बचा जा सकता है। खास तौर पर कालभैरव अष्टमी पर भैरव के दर्शन करने से आपको अशुभ कर्मों से मुक्ति मिल सकती है। भारत भर में कई परिवारों में कुलदेवता के रूप में भैरव की पूजा करने का विधान हैं। वैसे तो आम आदमी, शनि, कालिका माँ और काल भैरव का नाम सुनते ही घबराने लगते हैं, ‍लेकिन सच्चे दिल से की गई इनकी आराधना आपके जीवन के रूप-रंग को बदल सकती है। ये सभी देवता आपको घबराने के लिए नहीं बल्कि आपको सुखी जीवन देने के लिए तत्पर रहते है बशर्ते आप सही रास्ते पर चलते रहे।
भैरव अपने भक्तों की सारी मनोकामनाएँ पूर्ण करके उनके कर्म सिद्धि को अपने आशीर्वाद से नवाजते है। भैरव उपासना जल्दी फल देने के साथ-साथ क्रूर ग्रहों के प्रभाव को समाप्त खत्म कर देती है। शनि या राहु से पीडि़त व्यक्ति अगर शनिवार और रविवार को काल भैरव के मंदिर में जाकर उनका दर्शन करें। तो उसके सारे कार्य सकुशल संपन्न हो जाते है। एक बार भगवान शिव के क्रोधित होने पर काल भैरव की उत्पत्ति हुई। काल भैरव ने ब्रह्माजी के उस मस्तक को अपने नाखून से काट दिया जिससे उन्होंने असमर्थता जताई। तब ब्रह्म हत्या को लेकर हुई आकाशवाणी के तहत ही भगवान काल भैरव काशी में स्थापित हो गए थे। मध्यप्रदेश के उज्जैन में भी कालभैरव के ऐतिहासिक मंदिर है, जो बहुत महत्व का है। पुरानी धार्मिक मान्यता के अनुसार भगवान कालभैरव को यह वरदान है कि भगवान शिव की पूजा से पहले उनकी पूजा होगी। इसलिए उज्जैन दर्शन के समय कालभैरव के मंदिर जाना अनिवार्य है। तभी महाकाल की पूजा का लाभ आपको मिल पाता है।

तांत्रोक्त भैरव कवच

ॐ सहस्त्रारे महाचक्रे कर्पूरधवले गुरुः |
पातु मां बटुको देवो भैरवः सर्वकर्मसु ||
पूर्वस्यामसितांगो मां दिशि रक्षतु सर्वदा |
आग्नेयां च रुरुः पातु दक्षिणे चण्ड भैरवः ||
नैॠत्यां क्रोधनः पातु उन्मत्तः पातु पश्चिमे |
वायव्यां मां कपाली च नित्यं पायात् सुरेश्वरः ||
भीषणो भैरवः पातु उत्तरास्यां तु सर्वदा |
संहार भैरवः पायादीशान्यां च महेश्वरः ||
ऊर्ध्वं पातु विधाता च पाताले नन्दको विभुः |
सद्योजातस्तु मां पायात् सर्वतो देवसेवितः ||
रामदेवो वनान्ते च वने घोरस्तथावतु |
जले तत्पुरुषः पातु स्थले ईशान एव च ||
डाकिनी पुत्रकः पातु पुत्रान् में सर्वतः प्रभुः |
हाकिनी पुत्रकः पातु दारास्तु लाकिनी सुतः ||
पातु शाकिनिका पुत्रः सैन्यं वै कालभैरवः |
मालिनी पुत्रकः पातु पशूनश्वान् गंजास्तथा ||
महाकालोऽवतु क्षेत्रं श्रियं मे सर्वतो गिरा |
वाद्यम् वाद्यप्रियः पातु भैरवो नित्यसम्पदा ||

इस आनंददायक कवच का प्रतिदिन पाठ करने से प्रत्येक विपत्ति में सुरक्षा प्राप्त होती है| यदि योग्य गुरु के निर्देशन में इस कवच का अनुष्ठान सम्पन्न किया जाए तो साधक सर्वत्र विजयी होकर यश, मान, ऐश्वर्य, धन, धान्य आदि से पूर्ण होकर सुखमय जीवन व्यतीत करता है|

विज्ञान भैरव तंत्र

एक अद्भुत ग्रंथ है भारत मैं। और मैं समझता हूं, उस ग्रंथ से अद्भुत ग्रंथ पृथ्‍वी पर दूसरा नहीं है। उस ग्रंथ का नाम है, विज्ञान भैरव तंत्र। छोटी सी किताब है। इससे छोटी किताब भी दुनियां में खोजनी मुश्किल है। कुछ एक सौ बारह सूत्र है। हर सुत्र में एक ही बात है। पहले सूत्र में जो बात कह दी है, वहीं एक सौ बारह बार दोहराई गई है—एक ही बात, और हर दो सूत्र में एक विधि हो जाती है।
शिव-पार्वती--विज्ञान भैरव तंत्र
पार्वती पूछ रहीं है शंकर से,शांत कैसे हो जाऊँ? आनंद को कैसे उपलब्‍ध हो जाऊँ? अमृत कैसे मिलेगा? और दो-दो पंक्‍तियों में शंकर उत्‍तर देते है। दो पंक्‍तियों में वे कहते है, बाहर जाती है श्‍वास, भीतर जाती है श्‍वास। दोनों के बीच में ठहर जा, अमृत को उपलब्‍ध हो जाएगी। एक सूत्र पूरा हुआ। बाहर जाती है श्‍वास, भीतर आती है श्‍वास, दोनों के बीच ठहरकर देख ले, अमृत को उपलब्‍ध हो जाएगा। पार्वती कहती है, समझ में नहीं आया। कुछ और कहें। शंकर दो-दो में कहते चले जाते है। हर बार पार्वती कहती है। नहीं समझ में आया। कुछ और कहें। फिर दो पंक्‍तियां। और हर पंक्‍ति का एक ही मतलब है, दो के बीच ठहर जा। हर पंक्‍ति का एक ही अर्थ है, दो के बीच ठहर जा। बाहर जाती श्‍वास, अंदर जाती श्‍वास। जन्‍म और मृत्‍यु, यह रहा जन्म यह रही मृत्‍यु। दोनों के बीच ठहर जा। पार्वती कहती है, समझ में कुछ आता नहीं। कुछ और कहे। एक सौ बारह बार। पर एक ही बात दो विरोधों के बीच में ठहर जा। प्रतिकार-आसक्‍ति–विरक्‍ति, ठहर जा—अमृत की उपलब्धि। दो के बीच दो विपरीत के बीच जो ठहर जाए वह गोल्‍डन मीन, स्‍वर्ण सेतु को उपलब्‍ध हो जाता है।
यह तीसरा सूत्र भी वहीं है। और आप भी अपने-अपने सूत्र खोज सकते है। कोई कठिनाई नहीं है। एक ही नियम है कि दो विपरीत के बीच ठहर जाना, तटस्‍थ हो जाना। सम्‍मान-अपमान, ठहर जाओ—मुक्‍ति। दुख-सुख, रूक जाओ—प्रभु में प्रवेश। मित्र-शत्रु,ठहर जाओ—सच्चिदानंद में गति। कहीं से भी दो विपरीत को खोज लेना ओर दो के बीच में तटस्‍थ हो जाना। न इस तरफ झुकना, न उस तरफ। समस्‍त योग का सार इतना ही है। दो के बीच में जो ठहर जाता,वह जो दो के बाहर है, उसको उपलब्‍ध हो जाता है। द्वैत में जो तटस्थ हो जाता, अद्वैत में गति कर जाता है। द्वैत में ठहरी हुई चेतना अद्वैत में प्रतिष्‍ठित हो जाती है। द्वैत में भटकती चेतना, अद्वैत में च्‍युत हो जाती है।
–ओशो (गीता-दर्शन भाग—5 अध्‍याय 10, प्रवचन-12)

विघ्नहर्ता भैरव

शिवपुराण के अनुसार मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को भगवान भैरव प्रकट हुए थे, जिसे श्रीकाल भैरवाष्टमी के रूप में जाना जाता है। रूद्राष्टाध्यायी तथा भैरव तंत्र के अनुसार भैरव को शिवजी का अंशावतार माना गया है। भैरव का रंग श्याम है। उनकी चार भुजाएं हैं, जिनमें वे त्रिशूल, खड़ग, खप्पर तथा नरमुंड धारण किए हुए हैं। इनका वाहन श्वान (कुत्ता) है। इनकी वेश-भूषा लगभग शिवजी के समान है। भैरव श्मशानवासी हैं। ये भूत-प्रेत, योगिनियों के अधिपति हैं। भक्तों पर स्नेहवान और दुष्टों का संहार करने में सदैव तत्पर रहते हैं। भगवान भैरव अपने भक्तों के कष्टों को दूर कर बल, बुद्धि, तेज, यश, धन तथा मुक्ति प्रदान करते हैं। जो व्यक्ति भैरव जयंती को अथवा किसी भी मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को भैरव का व्रत रखता है, पूजन या उनकी उपासना करता है वह समस्त कष्टों से मुक्त हो जाता है।
रविवार एवं मंगलवार को भैरव की उपासना का दिन माना गया है। कुत्ते को इस दिन मिष्ठान खिलाकर दूध पिलाना चाहिए।
ब्रह्माजी के वरदान स्वरू प भैरव जी में सम्पूर्ण विश्व के भरण-पोषण की सामथ्र्य है, अत: इन्हें "भैरव" नाम से जाना जाता है। इनसे काल भी भयभीत रहता है अत: "काल भैरव" के नाम से विख्यात हैं। दुष्टों का दमन करने के कारण इन्हें "आमर्दक" कहा गया है। शिवजी ने भैरव को काशी के कोतवाल पद पर प्रतिष्ठित किया है। जिन व्यक्तियों की जन्म कुंडली में शनि, मंगल, राहु आदि पाप ग्रह अशुभ फलदायक हों, नीचगत अथवा शत्रु क्षेत्रीय हों। शनि की साढ़े-साती या ढैय्या से पीडित हों, तो वे व्यक्ति भैरव जयंती अथवा किसी माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी, रविवार या मंगलवार प्रारम्भ कर बटुक भैरव मूल मंत्र की एक माला (108 बार) का जाप प्रतिदिन रूद्राक्ष की माला से 40 दिन तक करें, अवश्य ही शुभ फलों की प्राप्ति होगी।

काशी में भैरव

त्रैलोक्य से न्यारी, मुक्ति की जन्मभूमि, बाबा विश्वनाथ की राजधानी "काशी' की रचना स्वयं भगवान शंकर ने की है। प्रलय काल में काशी का नाश नहीं होता। उस समय पंचमहाभूत यहीं पर शवरुप में शयन करते हैं। इसलिए इसे महाश्मशान भी कहा गया है। काशी का संविधान भगवान शिव का बनाया हुआ है, जबकि त्रैलोक्य का ब्रह्मा द्वारा। त्रैलोक्य का पालन विष्णु और दण्ड का कार्य यमराज करते हैं, परंतु काशी का पालन श्री शंकर और दण्ड का कार्य भैरव जी करते हैं। यमराज के दण्ड की पीड़ा से बत्तीस गुनी अधिक पीड़ा भैरव के दण्ड की होती है। जीव यमराज के दण्ड को सहन कर लेता है, परंतु भैरव का दण्ड असह्य होता है। भगवान शंकर अपनी नगरी काशी की व्यवस्था अपने गणों द्वारा कराते हैं। इन गणों में दण्डपाणि आदि भैरव, भूत- प्रेत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी, योगिनी, वीर आदि प्रमुख है।
भैरव की उत्पत्ति
ब्रह्मा और विष्णु में एक समय विवाद छिड़ा कि परम तत्व कौन है ? उस समय वेदों से दोनों ने पूछा :- क्योंकि वेद ही प्रमाण माने जाते हैं। वेदों ने कहा कि सबसे श्रेष्ठ शंकर हैं। ब्रह्मा जी के पहले पाँच मस्तक थे। उनके पाँचवें मस्तक ने शिव का उपहास करते हुए, क्रोधित होते हुए कहा कि रुद्र तो मेरे भाल स्थल से प्रकट हुए थे, इसलिए मैंने उनका नाम "रुद्र' रखा है। अपने सामने शंकर को प्रकट हुए देख उस मस्तक ने कहा कि हे बेटा ! तुम मेरी शरण में आओ, मैं तुम्हारी रक्षा कर्रूँगा।
(स्कंद पुराण, काशी खण्ड अध्याय ३०)
भैरव का नामकरण
इस प्रकार गर्व युक्त ब्रह्मा जी की बातें सुनकर भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो उठे और अपने अंश से भैरवाकृति को प्रकट किया। शिव ने उससे कहा कि "काल भैरव' ! तुम इस पर शासन करो। साथ ही उन्होंने कहा कि तुम साक्षात "काल' के भी कालराज हो। तुम विश्व का भरण करनें में समर्थ होंगे, अतः तुम्हारा नाम "भैरव' भी होगा। तुमसे काल भी डरेगा, इसलिए तुम्हें "काल भैरव' भी कहा जाएगा। दुष्टात्माओं का तुम नाश करोगे, अतः तुम्हें "आमर्दक' नाम से भी लोग जानेंगे। हमारे और अपने भक्तों के पापों का तुम तत्क्षण भक्षण करोगे, फलतः तुम्हारा एक नाम "पापभक्षण' भी होगा।
भैरव को शंकर का वरदान
भगवान शंकर ने कहा कि हे कालराज ! हमारी सबसे बड़ी मुक्ति पुरी "काशी' में तुम्हारा आधिपत्य रहेगा। वहाँ के पापियों को तुम्हीं दण्ड दोगे, क्योंकि "चित्रगुप्त' काशीवासियों के पापों का लेखा- जोखा नहीं रख सकेंगे। वह सब तुम्हें ही रखना होगा।
कपर्दी- भैरव
शंकर की इतनी बातें सुनकर उस आकृति "भैरव' ने ब्रह्मा के उस पाँचवें मस्तक को अपने नखाग्र भाग से काट लिया। इस पर भगवान शंकर ने अपनी दूसरी मूर्ति भैरव से कहा कि तुम ब्रह्मा के इस कपाल को धारण करो। तुम्हें अब ब्रह्म- हत्या लगी है। इसके निवारण हेतु "कापालिक' व्रत ग्रहण कर लोगों को शिक्षा देने के लिए सर्वत्र भिक्षा माँगो और कापालिक वेश में भ्रमण करो। ब्रह्मा के उस कपाल को अपने हाथों में लेकर कपर्दी भैरव चले और हत्या उनके पीछे चली। हत्या लगते ही भैरव काले पड़ गये। तीनो लोक में भ्रमण करते हुए वह काशी आये।
कपर्दी (कपाल) भैरव व कपालमोचन तीर्थ
श्री भैरव काशी की सीमा के भीतर चले आये, परंतु उनके पीछे आने वाली हत्या वहीं सीमा पर रुक गयी। वह प्रवेश नहीं कर सकी। फलतः वहीं पर वह धरती में चिग्घाड़ मारते हुए समा गयी। हत्या के पृथ्वी में धंसते ही भैरव के हाथ में ब्रह्मा का मस्तक गिर पड़ा। ब्रह्म- हत्या से पिण्ड छूटा, इस प्रसन्नता में भैरव नाचने लगे। बाद में ब्रह्म कपाल ही कपाल मोचन तीर्थ नाम से विख्यात हुआ और वहाँ पर कपर्दी भैरव, कपाल भैरव नाम से (लाट भैरव) अब काशी में विख्यात हैं। यहाँ पर श्री काल भैरव काशीवासियों के पापों का भक्षण करते हैं। कपाल भैरव का सेवक पापों से भय नहीं खाता।
भैरव के भक्तों से यमराज भय खाते हैं
काशीवासी भैरव के सेवक होने के कारण कलि और काल से नहीं डरते। भैरव के समीप अगहन बदी अष्टमी को उपवास करते हुए रात्रि में जागरण करने वाला मनुष्य महापापों से मुक्त हो जाता है। भैरव के सेवकों से यमराज भय खाते हैं। काशी में भैरव का दर्शन करने से सभी अशुभ कर्म भ हो जाते हैं। सभी जीवों के जन्मांतरों के पापों का नाश हो जाता है। अगहन की अष्टमी को विधिपूर्वक पूजन करने वालों के पापों का नाश श्री भैरव करते हैं। मंगलवार या रविवार को जब अष्टमी या चतुर्दशी तिथि पड़े, तो काशी में भैरव की यात्रा अवश्य करनी चाहिए। इस यात्रा के करने से जीव समस्त पापो से मुक्त हो जाता है। जो मूर्ख काशी में भैरव के भक्तों को कष्ट देते हैं, उन्हें दुर्गति भोगनी पड़ती है। जो मनुष्य श्री विश्वेश्वर की भक्ति करता है तथा भैरव की भक्ति नहीं करता, उसे पग- पग पर कष्ट भोगना पड़ता है। पापभक्षण भैरव की प्रतिदिन आठ प्रदक्षिणा करनी चाहिए। आमर्दक पीठ पर छः मास तक जो लोग अपने इष्ट देव का जप करते हैं, वे समस्त वाचिक, मानसिक एवं कायिक पापों में लिप्त नहीं होते। काशी में वास करते हुए, जो भैरव की सेवा, पूजा या भजन नहीं करे, उनका पतन होता है।

आरती श्री भैरव जी की

जय भैरव देवा, प्रभु जय भैरव देवा ।
जय काली और गौरा देवी कृत सेवा ।। जय ।।
तुम्हीं पाप उद्घारक दुःख सिन्धु तारक ।
भक्तों के सुख कारक भीषण वपु धारक ।। जय ।।
वाहन श्वान विराजत कर त्रिशूल धारी ।
महिमा अमित तुम्हारी जय जय भयहारी ।। जय ।।
तुम बिन देवा सेवा सफल नहीं होवे ।
चौमुख दीपक दर्शन दुःख खोवे ।। जय ।।
तेल चटकि दधि मिश्रित भाषावलि तेरी ।
कृपा करिये भैरव करिए नहीं देरी ।। जय ।।
पांव घुंघरु बाजत अरु डमरु जमकावत ।
बटुकनाथ बन बालकजन मन हरषावत ।। जय ।।
बटकुनाथ की आरती जो कोई नर गावे ।
कहे धरणीधर नर मनवांछित फल पावे ।। जय ।।

श्री भैरव चालीसा

। दोहा ।।
श्री गणपति, गुरु गौरि पद, प्रेम सहित धरि माथ ।
चालीसा वन्दन करों, श्री शिव भैरवनाथ ।।
श्री भैरव संकट हरण, मंगल करण कृपाल।
श्याम वरण विकराल वपु, लोचन लाल विशाल ।।


जय जय श्री काली के लाला । जयति जयति काशी-कुतवाला ।।
जयति बटुक भैरव जय हारी । जयति काल भैरव बलकारी ।।
जयति सर्व भैरव विख्याता । जयति नाथ भैरव सुखदाता ।।
भैरव रुप कियो शिव धारण । भव के भार उतारण कारण ।।
भैरव रव सुन है भय दूरी । सब विधि होय कामना पूरी ।।
शेष महेश आदि गुण गायो । काशी-कोतवाल कहलायो ।।
जटाजूट सिर चन्द्र विराजत । बाला, मुकुट, बिजायठ साजत ।।
कटि करधनी घुंघरु बाजत । दर्शन करत सकल भय भाजत ।।
जीवन दान दास को दीन्हो । कीन्हो कृपा नाथ तब चीन्हो ।।
वसि रसना बनि सारद-काली । दीन्यो वर राख्यो मम लाली ।।
धन्य धन्य भैरव भय भंजन । जय मनरंजन खल दल भंजन ।।
कर त्रिशूल डमरु शुचि कोड़ा । कृपा कटाक्ष सुयश नहिं थोड़ा ।।
जो भैरव निर्भय गुण गावत । अष्टसिद्घि नवनिधि फल पावत ।।
रुप विशाल कठिन दुख मोचन । क्रोध कराल लाल दुहुं लोचन ।।
अगणित भूत प्रेत संग डोलत । बं बं बं शिव बं बं बोतल ।।
रुद्रकाय काली के लाला । महा कालहू के हो काला ।।
बटुक नाथ हो काल गंभीरा । श्वेत, रक्त अरु श्याम शरीरा ।।
करत तीनहू रुप प्रकाशा । भरत सुभक्तन कहं शुभ आशा ।।
रत्न जड़ित कंचन सिंहासन । व्याघ्र चर्म शुचि नर्म सुआनन ।।
तुमहि जाई काशिहिं जन ध्यावहिं । विश्वनाथ कहं दर्शन पावहिं ।।
जय प्रभु संहारक सुनन्द जय । जय उन्नत हर उमानन्द जय ।।
भीम त्रिलोकन स्वान साथ जय । बैजनाथ श्री जगतनाथ जय ।।
महाभीम भीषण शरीर जय । रुद्र त्र्यम्बक धीर वीर जय ।।
अश्वनाथ जय प्रेतनाथ जय । श्वानारुढ़ सयचन्द्र नाथ जय ।।
निमिष दिगम्बर चक्रनाथ जय । गहत अनाथन नाथ हाथ जय ।।
त्रेशलेश भूतेश चन्द्र जय । क्रोध वत्स अमरेश नन्द जय ।।
श्री वामन नकुलेश चण्ड जय । कृत्याऊ कीरति प्रचण्ड जय ।।
रुद्र बटुक क्रोधेश काल धर । चक्र तुण्ड दश पाणिव्याल धर ।।
करि मद पान शम्भु गुणगावत । चौंसठ योगिन संग नचावत ।
करत कृपा जन पर बहु ढंगा । काशी कोतवाल अड़बंगा ।।
देयं काल भैरव जब सोटा । नसै पाप मोटा से मोटा ।।
जाकर निर्मल होय शरीरा। मिटै सकल संकट भव पीरा ।।
श्री भैरव भूतों के राजा । बाधा हरत करत शुभ काजा ।।
ऐलादी के दुःख निवारयो । सदा कृपा करि काज सम्हारयो ।।
सुन्दरदास सहित अनुरागा । श्री दुर्वासा निकट प्रयागा ।।
श्री भैरव जी की जय लेख्यो । सकल कामना पूरण देख्यो ।।

।। दोहा ।।
जय जय जय भैरव बटुक, स्वामी संकट टार ।
कृपा दास पर कीजिये, शंकर के अवतार ।।
जो यह चालीसा पढ़े, प्रेम सहित सत बार ।
उस घर सर्वानन्द हों, वैभव बड़े अपार ।।

भैरव वशीकरण मन्त्र

भैरव वशीकरण मन्त्र
१॰ “ॐनमो रुद्राय, कपिलाय, भैरवाय, त्रिलोक-नाथाय, ॐ ह्रीं फट् स्वाहा।”
विधिः- सर्व-प्रथम किसी रविवार को गुग्गुल, धूप, दीपक सहित उपर्युक्त मन्त्र का पन्द्रह हजार जप कर उसे सिद्ध करे। फिर आवश्यकतानुसार इस मन्त्र का १०८ बार जप कर एक लौंग को अभिमन्त्रित लौंग को, जिसे वशीभूत करना हो, उसे खिलाए।
२॰ “ॐ नमो काला गोरा भैरुं वीर, पर-नारी सूँ देही सीर। गुड़ परिदीयी गोरख जाणी, गुद्दी पकड़ दे भैंरु आणी, गुड़, रक्त का धरि ग्रास, कदे न छोड़े मेरा पाश। जीवत सवै देवरो, मूआ सेवै मसाण। पकड़ पलना ल्यावे। काला भैंरु न लावै, तो अक्षर देवी कालिका की आण। फुरो मन्त्र, ईश्वरी वाचा।”
विधिः- २१,००० जप। आवश्यकता पड़ने पर २१ बार गुड़ को अभिमन्त्रित कर साध्य को खिलाए।
३॰ “ॐ भ्रां भ्रां भूँ भैरवाय स्वाहा। ॐ भं भं भं अमुक-मोहनाय स्वाहा।”
विधिः- उक्त मन्त्र को सात बार पढ़कर पीपल के पत्ते को अभिमन्त्रित करे। फिर मन्त्र को उस पत्ते पर लिखकर, जिसका वशीकरण करना हो, उसके घर में फेंक देवे। या घर के पिछवाड़े गाड़ दे। यही क्रिया ‘छितवन’ या ‘फुरहठ’ के पत्ते द्वारा भी हो सकती है।

भगवान भैरव की साधना

वशीकरण, उच्चाटन, सम्मोहन, स्तंभन, आकर्षण और मारण जैसी तांत्रिक क्रियाओं के दुष्प्रभाव को नष्ट करने के लिए भैरव साधना की जाती है। इनकी साधना करने से सभी प्रकार की तांत्रिक क्रियाओं के प्रभाव नष्ट हो जाते हैं। जन्म कुंडली में छठा भाव रिपु यानि शत्रु का भाव होता है। लग्न से षष्ठ भाव भी रिपु का है। इस भाव के अधिपति, भाव में स्थित ग्रह और उनकी दृष्टि से शत्रु संबंधी कष्ट होना संभव है। षष्ठस्थ-षष्ठेश संबंधियों को शत्रु बनाता है। यह शत्रुता कई कारणों से हो सकती है। आपकी प्रगति कभी-कभी दूसरों को अच्छी नहीं लगती और वे आपकी प्रगति को प्रभावित करने के लिए तांत्रिक क्रियाओं का सहारा लेकर आपको प्रभावित करते हैं। तांत्रिक क्रियाओं के प्रभाव से व्यवसाय, धंधे में आशानुरूप प्रगति नहीं होती। दिया हुआ रूपया नहीं लौटता, रोग या विघ्न बाधाओं से पीडा अथवा बेकार की मुकदमेबाजी में धन की बर्बादी हो सकती है। इस प्रकार की शत्रु बाधा निवारण के लिए भैरव साधना फलदायी है।
भैरव भगवान शिव के द्वादश स्वरूप हैं। मार्गशीर्ष कृष्णा अष्टमी को भगवान भैरव का प्रादुर्भाव हुआ। भगवान भैरव के तीन प्रमुख रूप हैं- बटुक भैरव, महाकाल भैरव और स्वर्णाकर्षण भैरव। इनमें से भक्तगण बटुक भैरव की ही सर्वाधिक पूजा करते हैं। रविवार और मंगलवार का व्रत करने से भगवान भैरव प्रसन्न होते हैं। तंत्रशास्त्र में अष्ट भैरव का उल्लेख भी मिलता है- असितांग भैरव, रू रू भैरव, चंद्र भैरव, क्रोध भैरव, उन्मत भैरव, कपाल भैरव, भीषण भैरव और संहार भैरव। भगवान भैरव की साधना में ध्यान का अधिक महत्व है। इसी को ध्यान में रखकर सात्विक, राजसिक व तामसिक स्वरूपों का ध्यान किया जाता है। ध्यान के बाद इस मंत्र का जप करने का विधान है।
ऊं ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाय
कुरूकुरू बटुकाय ह्रीं।
भगवान भैरव के उक्त मंत्र के जप करने से व्यक्ति शत्रु के समक्ष अप्रतिम पुरूषार्थ से युक्त होता है। ऎसा मानते हैं मुकदमे या कारागार से मुक्ति के लिए भी इस मंत्र की साधना करने से लाभ होता है। भगवान बटुक भैरव के सात्विक स्वरू प का ध्यान करने से आयु में वृद्धि और आधि-व्याधि से मुक्ति मिलती है। इनके राजस स्वरू प का ध्यान करने से विविध अभिलाषाओं की पूर्ति संभव है। इनके तामस स्वरूप का ध्यान करने से शत्रु नाश, सम्मोहन, वशीकरणादि प्रभाव समाप्त होता है। व्याधि से मुक्ति के लिए व भैरव के तामस स्वरूप की साधना करना हितकर है। भैरव अष्टमी पर शत्रु दमन एवं बाधा निवारण व तांçन्त्रक के प्रभाव को नष्ट करने के लिए इनकी साधना शीघ्र फलदायी है। भैरव अष्टमी के दिन शत्रु बाधा से पीडित, कोर्ट-कचहरी संबंधी परेशानी, तंत्र क्रियाओं के प्रभाव को नष्ट करने के लिए भगवान भैरव की आराधना करें। इस दिन भगवान भैरव को प्रसन्न करने के लिए उनके विग्रह को चोला चढाएं, भैरव स्तोत्र या भैरव नामावली का पाठ करे या किसी पंडित से कराएं। उडद की दाल के नैवेद्य भैरव को चढाएं। शत्रु बाधा निवारण के लिए यदि आप चाहें तो भैरव यंत्र की साधना भी कर सकते हैं। भैरव यंत्र का निर्माण भैरव अष्टमी के दिन तांबे या भोजपत्र पर अष्टगंध की स्याही से अनार की कलम से कर लें। यंत्र निर्माण के बाद इसका विधि पूर्वक पूजन करके प्राण-प्रतिष्ठा करें। स्वयं यंत्र नहीं बना सके तो इसका निर्माण किसी पंडित से करा लें।

ॐ भयहरणं च भैरव:

।। ॐ हंषंनंगंकंसंखं महाकाल भैरवाय नम:।।
भैरव का अर्थ होता है भय का हरण कर जगत का भरण करने वाला। ऐसा भी कहा जाता है कि भैरव शब्द के तीन अक्षरों में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों की शक्ति समाहित है। भैरव शिव के गण और पार्वती के अनुचर माने जाते हैं। हिंदू देवताओं में भैरव का बहुत ही महत्व है। इन्हें काशी का कोतवाल कहा जाता है।
भैरव का जन्म : काल भैरव का आविर्भाव मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी को प्रदोषकाल में हुआ था। पुराणों में उल्लेख है कि शिव के रूधिर से भैरव की उत्पत्ति हुई। बाद में उक्त रूधिर के दो भाग हो गए- पहला बटुक भैरव और दूसरा काल भैरव। भगवान भैरव को असितांग, रुद्र, चंड, क्रोध, उन्मत्त, कपाली, भीषण और संहार नाम से भी जाना जाता है। भगवान शिव के पाँचवें अवतार भैरव को भैरवनाथ भी कहा जाता है। नाथ सम्प्रदाय में इनकी पूजा का विशेष महत्व है।
बटुक भैरव : 'बटुकाख्यस्य देवस्य भैरवस्य महात्मन:। ब्रह्मा विष्णु, महेशाधैर्वन्दित दयानिधे।।'- अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेशादि देवों द्वारा वंदित बटुक नाम से प्रसिद्ध इन भैरव देव की उपासना कल्पवृक्ष के समान फलदायी है। बटुक भैरव भगवान का बाल रूप है। इन्हें आनंद भैरव भी कहते हैं। उक्त सौम्य स्वरूप की आराधना शीघ्र फलदायी है। यह कार्य में सफलता के लिए महत्वपूर्ण है। उक्त आराधना के लिए मंत्र है- ।।ॐ ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाचतु य कुरु कुरु बटुकाय ह्रीं ॐ।।
काल भैरव : यह भगवान का साहसिक युवा रूप है। उक्त रूप की आराधना से शत्रु से मुक्ति, संकट, कोर्ट-कचहरी के मुकदमों में विजय की प्राप्ति होती है। व्यक्ति में साहस का संचार होता है। सभी तरह के भय से मुक्ति मिलती है। काल भैरव को शंकर का रुद्रावतार माना जाता है। काल भैरव की आराधना के लिए मंत्र है- ।।ॐ भैरवाय नम:।।
भैरव आराधना : एकमात्र भैरव की आराधना से ही शनि का प्रकोप शांत होता है। आराधना का दिन रविवार और मंगलवार नियुक्त है। पुराणों के अनुसार भाद्रपद माह को भैरव पूजा के लिए अति उत्तम माना गया है। उक्त माह के रविवार को बड़ा रविवार मानते हुए व्रत रखते हैं। आराधना से पूर्व जान लें कि कुत्ते को कभी दुत्कारे नहीं बल्कि उसे भरपेट भोजन कराएँ। जुआ, सट्टा, शराब, ब्याजखोरी, अनैतिक कृत्य आदि आदतों से दूर रहें। दाँत और आँत साफ रखें। पवित्र होकर ही सात्विक आराधना करें। अपवि‍त्रता वर्जित है।
भैरव तंत्र : योग में जिसे समाधि पद कहा गया है, भैरव तंत्र में भैरव पद या भैरवी पद प्राप्त करने के लिए भगवान शिव ने देवी के समक्ष 112 विधियों का उल्लेख किया है जिनके माध्यम से उक्त अवस्था को प्राप्त हुआ जा सकता है।
लोक देवता : लोक जीवन में भगवान भैरव को भैरू महाराज, भैरू बाबा, मामा भैरव, नाना भैरव आदि नामों से जाना जाता है। कई समाज के ये कुल देवता हैं और इन्हें पूजने का प्रचलन भी भिन्न-भिन्न है, जो कि विधिवत न होकर स्थानीय परम्परा का हिस्सा है। यह भी उल्लेखनीय है कि भगवान भैरव किसी के शरीर में नहीं आते।
पालिया महाराज : सड़क के किनारे भैरू महाराज के नाम से ज्यादातर जो ओटले या स्थान बना रखे हैं दरअसल वे उन मृत आत्माओं के स्थान हैं जिनकी मृत्यु उक्त स्थान पर दुर्घटना या अन्य कारणों से हो गई है। ऐसे किसी स्थान का भगवान भैरव से कोई संबंध नहीं। उक्त स्थान पर मत्था टेकना मान्य नहीं है।
भैरव चरित्र : भैरव के चरित्र का भयावह चित्रण कर तथा घिनौनी तांत्रिक क्रियाएँ कर लोगों में उनके प्रति एक डर और उपेक्षा का भाव भरने वाले तांत्रिकों और अन्य पूजकों को भगवान भैरव माफ करें। दरअसल भैरव वैसे नहीं है जैसा कि उनका चित्रण किया गया है। वे मांस और मदिरा से दूर रहने वाले शिव और दुर्गा के भक्त हैं। उनका चरित्र बहुत ही सौम्य, सात्विक और साहसिक है। उनका कार्य है शिव की नगरी काशी की सुरक्षा करना और समाज के अपराधियों को पकड़कर दंड के लिए प्रस्तुत करना। जैसे एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी, जिसके पास जासूसी ‍कुत्ता होता है। उक्त अधिकारी का जो कार्य होता है वही भगवान भैरव का कार्य है।
भैरव मंदिर : काशी का काल भैरव मंदिर सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। काशी विश्वनाथ मंदिर से भैरव मंदिर कोई डेढ़-दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। दूसरा नई दिल्लीClick here to see more news from this city के विनय मार्ग पर नेहरू पार्क में बटुक भैरव का पांडवकालीन मंदिर अत्यंत प्रसिद्ध है। तीसरा उज्जैन के काल भैरव की प्रसिद्धि का कारण भी ऐतिहासिक और तांत्रिक है। नैनीताल के समीप घोड़ा खाड़ का बटुकभैरव मंदिर भी अत्यंत प्रसिद्ध है। यहाँ गोलू देवता के नाम से भैरव की प्रसिद्धि है। इसके अलावा शक्तिपीठों और उपपीठों के पास स्थित भैरव मंदिरों का महत्व माना गया है।

Monday, November 29, 2010

चमत्कारिक मंदिर बालाजी मेंहदीपुर में भी हैं भैंरों जी

राजस्थान के दौसा जिले में मेंहदीपुर स्थित बालाजी का चमत्कारिक मंदिर है। बाल स्वरूप हनुमान का स्वरूप ही बालाजी के नाम से पुकारा जाता है। इस मंदिर में तीन देवताओं का वास है। बाल रूप हनुमान जी, भैंरों बाबा और प्रेतराज सरकार। हरेक दर्शनार्थी तीनों देवों के दर्शन कर खुद को कृतार्थ मानता है। कामना पूर्ति के लिए यहां अर्जी लगायी जाती है। इसका नियम इस तरह से है। सबसे पहले हलवाई से दरख्वास्त लेते हैं। यह कागज पर लिखी दरख्वास्त नहीं होती अपितु यह एक दौने में छह बूंदी के लड्डू, कुछ बताशे तथा घी का एक छोटा दीपक होता है। जिसकी कीमत ढाई रुपए होती है। यह लेकर बालाजी के मंदिर में जाते हैं। वहां पुजारी को वह दौना दे देते हैं। पुजारी उस दौने में से कुछ लड्डू-बताशे जल रहे अग्नि कुंड में डालता है, ठीक उसी समय आप अपने मन में ही बालाजी से कहते हैं-बालाजी आपके दरबार में हाजिर हूं। मेरी रक्षा करते रहना। पुजारी शेष दौने को आपको वापस कर देता है। तब उसमें से दो लड्डू निकाल कर अपनी कमीज की जेब में रख लेते हैं। शेष दौने को भैरों जी के मंदिर में पुजारी को दे देते हैं। वह भी उस दौने में से कुछ सामग्री लेकर हवन कुंड में डाल देता है। ठीक उसी समय उनसे भी मन ही मन आप कहते हैं-बाबा आपके दरबार में हाजिर हूं, मेरी रक्षा करते रहना। फिर वही दौना प्रेतराज के दरबार में पुजारी को देते हैं। वहां भी वही प्रक्रिया पुजारी व आप दौहराते हैं। यहां का पुजारी भी शेष दौना दे देता है। वहां एक चबूतरा है, जहां पर वह दौना फैंक देते हैं। मंदिर से बाहर आकर जो लड्डू हनुमान जी के भोग लगाने के बाद जेब में रखे थे, उन्हें निकाल कर खा लेते हैं। यह प्रथम चरण हुआ।
ऐसे लगती है अर्जी
इसकी कीमत 181 रुपए 25 पैसे होती है। इतने रुपए देकर आप हलवाई से अर्जी का सामान ले सकते हैं। हलवाई एक थाल में सवा किलो बूंदी के लड्डू तथा एक कटोरी में घी थाल में रखकर देता है। वह थाल हालाजी के मंदिर में पुजारी को देते हैं। वह कुछ लड्डू व घी भोग के लिए निकाल लेता है। कुछ लड्डू हवन कुंड में डालता है। ठीक उसी समय आपको बालाजी से जो आपकी इच्छा हो, प्रार्थना कर लेनी चाहिए। पुजारी थाल में खाली घी की कटोरी तथा छह लड्डू आपको वापस कर देता है। वह थाल आप सीधे हलवाई को दे दें। हलवाई आपको एक थाल उबले चावलों व दूसरा उबले हुए साबुत उरद का देगा। छह लड्डू में से दो उरद के थाल में रख देगा। दो लड्डू चावल के थाल में रख देगा। दो लड्डू लिफाफे में रखकर दे देगा। उसे प्रायः अपनी जेब में रख लें। दोनों थालों को लेकर बाहर के रास्ते से भैंरों जी के मंदिर के पुजारी के समक्ष रखते हैं। पुजारी उसमें से कुछ शामग्री हवन कुंड में डलते हैं। ठीक उसी समय भैंरों जी से वही मांगें जो बालाजी से मांगा था। फिर दोनों थाल उठाकर प्रेत राज जी के मंदिर के पुजारी के सामने रखें। जब वह कुछ सामग्री हवन कुंड में डाले तो प्रेत राज जी से भी वही मांगें, जो बालाजी व भैंरों जी से मांगा था। फिर दोनों थाल उठाकर पीछे चबूतरे पर शेष सामग्री डाल देते हैं। तथा दोनों खाली थाल हलवाई को दे देते हैं। हाथ धो कर जो दो लड्डू जेब में रखे थे, उन्हें खा लेते हैं। यह लड्डू अर्जी लगाने वाला ही खाता है। िकसी और को नहीं देना चाहिए। इसके उपरांत एक दरख्वास्त लेकर फिर बालाजी के मंदिर में जाते हैं। पुजारी को देते हैं। हवन कुंड में डालते समय प्रार्थना करते हैं। (पहले वाली प्रार्थना को दोहराते हैं। )दो लड्डू दोने से निकाल कर जेब में रख लेते हैं। फिर उसी क्रम से भैंरों जी व प्रेतराज जी से मांगते हैं। दोना फेंक कर नीचे आने पर हनुमान जी के निकाले भोग के लड्डू खा लेते हैं। यहां आपकी अर्जी का क्रम पूरा हो जाता है। मंदिर छोड़ने तथा घर वापस चलने से पहले चलते समय की एक दरख्वास्त फिर लगाते हैं। इसमें तीनों देवों से पहले बताए क्रम के अनुसार पारिवारिक सुख शांति तथा उनकी कृपा मांगते हैं। यहां बालाजी के भोग लगाने पर जो पहले दो लड्डू निकाले थे, वह नहीं निकालते हैं। फिर वहां से सीधे घर को प्रस्थान कर देते हैं, रुकते नहीं। भूत-प्रेत बाधाग्रस्त व्यक्ति यहां उपरोक्त अनुसार अर्जी लगाता है। यहां भूत प्रेतों को संकट कहते हैं। अर्जी में बालाजी, भैरों जी व प्रेत राज जी से यही कहते हैं कि मेरे ऊपर जो संकट है, उससे मुझे मुक्त करें। तो यहां की अदृश्य शक्तियां क्रियाशील हो जाती हैं और संकट को उस व्यक्ति पर लाकर संकट को विभिन्न तरीकों से कसती हैं, वह संकट को तीन प्रकार की गति देती हैं। एक तो संकट को फांसी दी जाती है। वह संकट भैंरों जी के यहां पीड़ित के शरीर में शीर्ष आसन की स्थिति में पीड़ित व्यक्ति को मुक्त करने का वचन देता है। यह भी बताता है कि यह संकट किस तांत्रिक ने उसे लगाया है या वह स्वयं ही उसके पीछे कब और कहां से लगा है। उस संकट ने उस व्यक्ति का क्या-क्या अहित किया है। फिर उस संकट को फांसी दे दी जाती है। अथवा उस संकट को भंगीवाड़े में जला दिया जाता है। यदि बालाजी समझते हैं कि वह अच्छी आत्मा है तो उसे शुद्ध कर अपने चरणों में बिठा लेते हैं कि वह भजन करे और शक्ति अर्जित करे। और लोगों का अन्य संकटों से उद्धार भी करे। उस व्यक्ति की रक्षार्थ उसे अपने दूत दे देते हैं, जो उसकी रक्षा करते रहते हैं। यह सारा काम यहां स्वचालित अदृश्य शक्तियों द्वारा होता है। किसी जीवित व्यक्ति या पुजारी का कोई योगदान नहीं होता है।
यदि संकट ग्रस्त व्यक्ति यह अर्जी लगाता है कि जो भी संकट उसे परेशान कर रहा है, या कर रहे हैं, बालाजी महाराज उसे कैद कर लें तो वह संकट बालाजी महाराज के यहां कैद हो जाता है और वह उन संकटों से मुक्त हो जाता है। यहां संकट ग्रस्तों की विभिन्न यातनाओं जैसे कलामुंडी खाते, दौड़-दौड़कर दीवारों में पीठ मारते, धरती पर हाथ मारते, भारी-भारी पत्थर अपने ऊपर रखवाते, अग्नि में तपते इत्यादि देखकर दर्शनार्थी भयभीत हो जाते हैं। किंतु भय का कोई कारण नहीं है। संकटग्रस्त व्यक्ति किसी दर्शनार्थी को कोई हानि नहीं पहुंचाता है। बालाजी महाराज के अदृश्य गण दर्शनार्थी की रक्षा में तत्पर रहते हैं। जो दर्शनार्थी अपने किसी कार्य के लिए अर्जी लगाता है, तथा यह भी बालाजी से कहता है कि मेरा काम हो जाने पर सवा मनी करूंगा तो कार्य पूरा हो जाने पर वह सवा मनी लगाता है। सवा मनी करने के लिए मंदिर के पुजारी जो श्री राम जानकी मंदिर में बैठते हैं, उन्हें सवा मनी के पैसे जमा कराने होते हैं। यह दो प्रकार की होती है। एक, लड्डू पूड़ी, दूसरी हलुवा-पूड़ी। पुजारी उन्हें उस कीमत की रसीद दे देता है तथा बारह बजे मंदिर में प्रसाद लगाने के बाद आपको प्रसाद दिया जाता है। प्रसाद को अपने परिजनों व साथियों के लिए मंदिर से धर्मशाला में ले जाकर सेवन करना चाहिए। इस मंदिर में एक विशेष ध्यान देने वाली बात यह है कि मंदिर में लगाया गया भोग प्रसाद न कोई किसी को देता है और न ही कोई दूसरा खाता है। इस मंदिर में लगाया प्रसाद अपने घर भी नहीं ले जाया जाता। केवल मेवा मिश्री का भोग ही ले जा सकते हैं। यह पवित्र स्थान बसों के बेहतर संजाल से जुड़ा हुआ है जो आगरा, मथुरा, दौसा और भरतपुर जैसे स्थानों से बड़ी संख्या में समय-समय पर आती-जाती रहती हैं। यहां करीब तीन सौ धर्मशाला हैं और भोजन की अच्छी व्यवस्था है।

पूजा विधानः मान्यताएं और तर्क

शराब इस लिए चढ़ाई जाती है क्योंकि मान्यता है कि भैरव को शराब चढ़ाकर बड़ी आसानी से मन मांगी मुराद हासिल की जा सकती है। कुछ लोग मानते हैं कि शराब ग्रहण कर भैरव अपने उपासक पर कुछ उसी अंदाज में मेहरबान हो जाते हैं जिस तरह आम आदमी को शराब पिलाकर अपेक्षाकृत अधिक लाभ उठाया जा सकता है। कुछ लोग कहते हैं कि यह छोटी सोच है। हमारे यहां तीन तरह से भैरव की उपासना की प्रथा रही है। राजसिक, सात्त्विक और तामसिक। हमारे देश में वामपंथी तामसिक उपासना का प्रचलन हुआ, तब मांस और शराब का प्रयोग कुछ उपासक करने लगे। ऐसे उपासक विशेष रूप से श्मशान घाट में जाकर मांस और शराब से भैरव को खुश कर लाभ उठाने लगे। लेकिन भैरव बाबा की उपासना में शराब, मांस की भेंट जैसा कोई विधान नहीं है। शराब, मांस आदि का प्रयोग राक्षस या असुर किया करते थे। किसी देवी-देवता के नाम के साथ ऐसी चीजों को जोड़ना उचित नहीं है। कुछ लोगों के कारण ही आम आदमी के मन में यह भावना जाग उठी कि काल भैरव बड़े क्रूर, मांसाहारी और शराब पीने वाले देवता हैं। किसी भी देवता के साथ ऐसी बातें जोड़ना पाप ही कहलाएगा। गृहस्थ के लिए इन दोनों चीजों का पूजा में प्रयोग वर्जित है। गृहस्थों के लिए काल भैरवाष्टक स्तोत्र का नियमित पाठ सर्वोत्तम है, जो अनेक बाधाओं से मुक्ति दिलाता है। काल भैरव तंत्र के अधिष्ठाता माने जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि तंत्र उनके मुख से प्रकट होकर उनके चरणों में समा जाता है। लेकिन, भैरव की तांत्रिक साधना गुरुगम्य है। योग्य गुरु के मार्गदर्शन में ही यह साधना की जानी चाहिए।

काल भैरव की उत्पत्ति और काशी से संबंध

पहली कथा है कि ब्रह्मा जी ने पूरी सृष्टि की रचना की। ऐसा मानते हैं कि उस समय प्राणी की मृत्यु नहीं होती थी। पृथ्वी के ऊपर लगातार भार बढ़ने लगा। पृथ्वी परेशान होकर ब्रह्मा के पास गई। पृथ्वी ने ब्रह्मा जी से कहा कि मैं इतना भार सहन नहीं कर सकती। तब ब्रह्मा जी ने मृत्यु को लाल ध्वज लिए स्त्री के रूप में उत्पन्न किया और उसे आदेश दिया कि प्राणियों को मारने का दायित्त्व ले। मृत्यु ने ऐसा करने से मना कर दिया और कहा कि मैं ये पाप नहीं कर सकती। ब्रह्माजी ने कहा कि तुम केवल इनके शरीर को समाप्त करोगी लेकिन जीव तो बार-बार जन्म लेते रहेंगे। इस पर मृत्यु ने ब्रह्माजी की बात स्वीकार कर ली और तब से प्राणियों की मृत्यु शुरू हो गई। समय के साथ मानव समाज में पाप बढ़ता गया। तब शंकर भगवान ने ब्रह्मा जी से पूछा कि इस पाप को समाप्त करने का आपके पास क्या उपाय है। ब्रह्माजी ने इस विषय में अपनी असमर्थता जताई। शंकर भगवान शीघ्र कोपी हैं। उन्हें क्रोध आ गया और उनके क्रोध से काल भैरव की उत्पत्ति हुई। काल भैरव ने ब्रह्माजी के उस मस्तक को अपने नाखून से काट दिया जिससे उन्होंने असमर्थता जताई थी। इससे काल भैरव को ब्रह्म हत्या लग गयी। काल भैरव तीनों लोकों में भ्रमण करते रहे लेकिन ब्रह्म हत्या से वे मुक्त नहीं हो पाए। ऐसी मान्यता है कि जब काल भैरव काशी पहुंचे, तब ब्रह्म हत्या ने उनका पीछा छोड़ा। उसी समय आकाशवाणी हुई कि तुम यहीं निवास करो और काशीवासियों के पाप-पुण्य के निर्णय का दायित्त्व संभालो। तब से भगवान काल भैरव काशी में स्थापित हो गए।

कथा-दो
दूसरी कथा यह भी है कि एक बार देवताओं की सभा हुई थी। उसमें ब्रह्मा जी के मुख से शंकर भगवान के प्रति कुछ अपमानजनक शब्द निकल गए। तब शंकर भगवान ने क्रोध में हुंकार भरी और उस हुंकार से काल भैरव प्रकट हुए और ब्रह्मा जी के उस सिर को काट दिया जिससे ब्रह्मा जी ने शंकर भगवान की निंदा की थी। काल भैरव को ब्रह्म हत्या दोष लगने और काशी में वास करने तक की आगे की कथा पहली कथा जैसी ही है। यह भी मान्यता है कि धर्म की मर्यादा बनाएं रखने के लिए भगवान शिव ने अपने ही अवतार काल भैरव को आदेश दिया था कि हे भैरव, तुमने ब्रह्माजी के पांचवें सिर को काटकर ब्रह्म हत्या का जो पाप किया है, उसके प्रायश्चित के लिए तुम्हें पृथ्वी पर जाकर माया जाल में फंसना होगा और विश्व भ्रमण करना होगा। जब ब्रह्मा जी का कटा हुआ सिर तुम्हारे हाथ से गिर जाएगा, उसी समय तुम ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त हो जाओगे और उसी स्थान पर स्थापित हो जाओगे। काल भैरव की यह यात्रा काशी में समाप्त हुई थी।

काल भैरव बड़े दयालु-कृपालु

काल भैरव का नाम सुनते ही एक अजीब-सी भय मिश्रित अनुभूति होती है। एक हाथ में ब्रह्माजी का कटा हुआ सिर और अन्य तीनों हाथों में खप्पर, त्रिशूल और डमरू लिए भगवान शिव के इस रुद्र रूप से लोगों को डर भी लगता है, लेकिन ये बड़े ही दयालु-कृपालु और जन का कल्याण करने वाले हैं। भैरव शब्द का अर्थ ही होता है भरण-पोषण करने वाला, जो भरण शब्द से बना है। काल भैरव की चर्चा रुद्रयामल तंत्र और जैन आगमों में भी विस्तारपूर्वक की गई है। शास्त्रों के अनुसार कलियुग में काल भैरव की उपासना शीघ्र फल देने वाली होती है। उनके दर्शन मात्र से शनि और राहु जैसे क्रूर ग्रहों का भी कुप्रभाव समाप्त हो जाता है। काल भैरव की सात्त्विक, राजसिक और तामसी तीनों विधियों में उपासना की जाती है।
इनकी पूजा में उड़द और उड़द से बनी वस्तुएं जैसे इमरती, दही बड़े आदि शामिल होते हैं। चमेली के फूल इन्हें विशेष प्रिय हैं। पहले भैरव को बकरे की बलि देने की प्रथा थी, जिस कारण मांस चढ़ाने की प्रथा चली आ रही थी, लेकिन अब परिवर्तन आ चुका है। अब बलि की प्रथा बंद हो गई है। आजकल धन की चाह में स्वर्णाकर्षण भैरव की भी साधना की जा रही है। स्वर्णाकर्षण भैरव काल भैरव का सात्त्विक रूप हैं, जिनकी पूजा धन प्राप्ति के लिए की जाती है। यह हमेशा पाताल में रहते हैं, जैसे सोना धरती के गर्भ में होता है। इनका प्रसाद दूध और मेवा है। यहां मदिरा-मांस सख्त वर्जित है। भैरव रात्रि के देवता माने जाते हैं। इस कारण इनकी साधना का समय मध्य रात्रि यानी रात के 12 से 3 बजे के बीच का है। इनकी उपस्थिति का अनुभव गंध के माध्यम से होता है। शायद यही वजह है कि कुत्ता इनकी सवारी है। कुत्ते की गंध लेने की क्षमता जगजाहिर है। देवी महाकाली, काल भैरव और शनि देव ऐसे देवता हैं जिनकी उपासना के लिए बहुत कड़े परिश्रम, त्याग और ध्यान की आवश्यकता होती है। तीनों ही देव बहुत कड़क, क्रोधी और कड़ा दंड देने वाले माने जाते है। धर्म की रक्षा के लिए देवगणों की अपनी-अपनी विशेषताएं है। किसी भी अपराधी अथवा पापी को दंड देने के लिए कुछ कड़े नियमों का पालन जरूरी होता ही है। लेकिन ये तीनों देवगण अपने उपासकों, साधकों की मनाकामनाएं भी पूरी करते हैं। कार्यसिद्धि और कर्मसिद्धि का आशीर्वाद अपने साधकों को सदा देते रहते हैं। भगवान भैरव की उपासना बहुत जल्दी फल देती है। इस कारण आजकल उनकी उपासना काफी लोकप्रिय हो रही है। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि भैरव की उपासना क्रूर ग्रहों के प्रभाव को समाप्त करती है। शनि की पूजा बढ़ी है। अगर आप शनि या राहु के प्रभाव में हैं तो शनि मंदिरों में शनि की पूजा में हिदायत दी जाती है कि शनिवार और रविवार को काल भैरव के मंदिर में जाकर उनका दर्शन करें। मान्यता है कि 40 दिनों तक लगातार काल भैरव का दर्शन करने से मनोकामना पूरी होती है। इसे चालीसा कहते हैं। चन्द्रमास के 28 दिनों और 12 राशियां जोड़कर ये 40 बने हैं।